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मकान

आज की रात बहुत गरम हवा चलती है
आज की रात न फुटपाथ पे नींद आयेगी ।
सब उठो, मैं भी उठूँ, तुम भी उठो, तुम भी उठो
कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जायेगी ।

ये जमीन तब भी निगल लेने पे आमादा थी
पाँव जब टूटी शाखों से उतारे हम ने ।
इन मकानों को खबर है ना मकीनों को खबर
उन दिनों की जो गुफाओ मे गुजारे हम ने ।

हाथ ढलते गये सांचे में तो थकते कैसे
नक्श के बाद नये नक्श निखारे हम ने ।
कि ये दीवार बुलंद, और बुलंद, और बुलंद,
बाम-ओ-दर और जरा, और सँवारा हम ने ।

आँधियाँ तोड़ लिया करती थी शामों की लौं
जड़ दिये इस लिये बिजली के सितारे हम ने ।
बन गया कसर तो पहरे पे कोई बैठ गया
सो रहे खाक पे हम शोरिश-ऐ-तामिर लिये ।

अपनी नस-नस में लिये मेहनत-ऐ-पेयाम की थकान
बंद आंखों में इसी कसर की तसवीर लिये ।
दिन पिघलाता है इसी तरह सारों पर अब तक
रात आंखों में खटकतीं है स्याह तीर लिये ।

आज की रात बहुत गरम हवा चलती है
आज की रात न फुटपाथ पे नींद आयेगी ।
सब उठो, मैं भी उठूँ, तुम भी उठो, तुम भी उठो
कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जायेगी ।

– कैफी आजमी

 
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Posted by on December 15, 2016 in Kaifi Azmi, Uncategorized

 

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हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती

हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयंप्रभा समुज्जवला स्वतंत्रता पुकारती
अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़-प्रतिज्ञ सोच लो
प्रशस्त पुण्य पंथ हैं – बढ़े चलो बढ़े चलो

असंख्य कीर्ति-रश्मियाँ विकीर्ण दिव्य दाह-सी
सपूत मातृभूमि के रुको न शूर साहसी
अराति सैन्य सिंधु में, सुबाड़वाग्नि से जलो
प्रवीर हो जयी बनो – बढ़े चलो बढ़े चलो

– जयशंकर प्रसाद

 
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Posted by on July 3, 2016 in JaiShankar Prasad, Uncategorized

 

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सिंहासन खाली करो कि जनता आती है

सदियों की ठंढी, बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

जनता? हां,मिट्टी की अबोध मूरतें वही,
जाड़े-पाले की कसक सदा सहनेवाली,
जब अंग-अंग में लगे सांप हो चूस रहे
तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली।

जनता? हां, लंबी-बडी जीभ की वही कसम,
“जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।”
“सो ठीक, मगर, आखिर इस पर जनमत क्या है?”
‘है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है?”

मानो, जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं,
जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में
अथवा कोई दुधमुंही जिसे बहलाने के
जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में।

लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं,
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,
सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है,
जनता की रोके राह,समय में ताव कहां?
वह जिधर चाहती,काल उधर ही मुड़ता है।

अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अंधकार
बीता; गवाक्ष अंबर के दहके जाते हैं
यह और नहीं कोई,जनता के स्वप्न अजय
चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं।

सब से विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा,
तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तैयार करो
अभिषेक आज राजा का नहीं, प्रजा का है,
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो।

आरती लिये तू किसे ढूंढता है मूरख,
मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में?
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में।

फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,
धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

-रामधारी सिंह दिनकर

 
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Posted by on April 28, 2016 in Ramdhari Singh 'Dinkar'., Uncategorized

 

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Maa

माँ आँखों से ओझल होती,
आँखें ढूँढ़ा करती रोती।
वो आँखों में स्‍वप्‍न सँजोती,
हर दम नींद में जगती सोती।

वो मेरी आँखों की ज्‍योति‍,
मैं उसकी आँखों का मोती।
कि‍तने आँचल रोज भि‍गोती,
वो फि‍र भी ना धीरज खोती।

कहता घर मैं हूँ इकलौती,
दादी की मैं पहली पोती।
माँ की गोदी स्‍वर्ग मनौती,
क्‍या होता जो माँ ना होती।

नहीं जरा भी हुई कटौती,
गंगा बन कर भरी कठौती।
बड़ी हुई मैं हँसती रोती,
आँख दि‍खाती जो हद खोती।

शब्‍द नहीं माँ कैसी होती,
माँ तो बस माँ जैसी होती।
आज हूँ जो, वो कभी न होती,
मेरे संग जो माँ ना होती।।

– गोपाल कृष्‍ण भट्ट ‘आकुल’

 

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Din Kuch Aise Gujarta Hai Koi

दिन कुछ ऐसे गुजारता है कोई
जैसे एहसान उतारता है कोई

आईना देख के तसल्ली हुई
हम को इस घर में जानता है कोई

पक गया है शजर पे फल शायद
फिर से पत्थर उछालता है कोई

फिर नजर में लहू के छींटे हैं
तुम को शायद मुघालता है कोई

देर से गूँजतें हैं सन्नाटे
जैसे हम को पुकारता है कोई ।

– गुलजार

 
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Posted by on October 4, 2015 in Uncategorized

 

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Veer Tum Badhe Chalo

वीर तुम बढ़े चलो
धीर तुम बढ़े चलो

साथ में ध्वजा रहे
बाल दल सजा रहे
ध्वज कभी झुके नहीं
दल कभी रुके नहीं

सामने पहाड़ हो
सिंह की दहाड़ हो
तुम निडर,हटो नहीं
तुम निडर,डटो वहीं

वीर तुम बढ़े चलो
धीर तुम बढ़े चलो

प्रात हो कि रात हो
संग हो न साथ हो
सूर्य से बढ़े चलो
चन्द्र से बढ़े चलो

वीर तुम बढ़े चलो
धीर तुम बढ़े चलो

एक ध्वज लिये हुए
एक प्रण किये हुए
मातृ भूमि के लिये
पितृ भूमि के लिये
वीर तुम बढ़े चलो
धीर तुम बढ़े चलो

अन्न भूमि में भरा
वारि भूमि में भरा
यत्न कर निकाल लो
रत्न भर निकाल लो
वीर तुम बढ़े चलो
धीर तुम बढ़े चलो

-द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी

 

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आभार

जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद।

जीवन अस्थिर अनजाने ही, हो जाता पथ पर मेल कहीं,
सीमित पग डग, लम्बी मंज़िल, तय कर लेना कुछ खेल नहीं।
दाएँ-बाएँ सुख-दुख चलते, सम्मुख चलता पथ का प्रसाद –
जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद।

साँसों पर अवलम्बित काया, जब चलते-चलते चूर हुई,
दो स्नेह-शब्द मिल गये, मिली नव स्फूर्ति, थकावट दूर हुई।
पथ के पहचाने छूट गये, पर साथ-साथ चल रही याद –
जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद।

जो साथ न मेरा दे पाये, उनसे कब सूनी हुई डगर?
मैं भी न चलूँ यदि तो क्या, राही मर लेकिन राह अमर।
इस पथ पर वे ही चलते हैं, जो चलने का पा गये स्वाद –
जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद।

कैसे चल पाता यदि न मिला होता मुझको आकुल अंतर?
कैसे चल पाता यदि मिलते, चिर-तृप्ति अमरता-पूर्ण प्रहर!
आभारी हूँ मैं उन सबका, दे गये व्यथा का जो प्रसाद –
जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद।
– शिवमंगल सिंह सुमन

 
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Posted by on January 5, 2014 in Shiv Mangal Singh Suman

 

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जीवन की आपाधापी में

जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।

जिस दिन मेरी चेतना जगी मैंने देखा
मैं खड़ा हुआ हूँ इस दुनिया के मेले में,
हर एक यहाँ पर एक भुलाने में भूला
हर एक लगा है अपनी अपनी दे-ले में
कुछ देर रहा हक्का-बक्का, भौचक्का-सा,
आ गया कहाँ, क्या करूँ यहाँ, जाऊँ किस जा?
फिर एक तरफ से आया ही तो धक्का-सा
मैंने भी बहना शुरू किया उस रेले में,
क्या बाहर की ठेला-पेली ही कुछ कम थी,
जो भीतर भी भावों का ऊहापोह मचा,
जो किया, उसी को करने की मजबूरी थी,
जो कहा, वही मन के अंदर से उबल चला,
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।

मेला जितना भड़कीला रंग-रंगीला था,
मानस के अन्दर उतनी ही कमज़ोरी थी,
जितना ज़्यादा संचित करने की ख़्वाहिश थी,
उतनी ही छोटी अपने कर की झोरी थी,
जितनी ही बिरमे रहने की थी अभिलाषा,
उतना ही रेले तेज ढकेले जाते थे,
क्रय-विक्रय तो ठण्ढे दिल से हो सकता है,
यह तो भागा-भागी की छीना-छोरी थी;
अब मुझसे पूछा जाता है क्या बतलाऊँ
क्या मान अकिंचन बिखराता पथ पर आया,
वह कौन रतन अनमोल मिला ऐसा मुझको,
जिस पर अपना मन प्राण निछावर कर आया,
यह थी तकदीरी बात मुझे गुण दोष न दो
जिसको समझा था सोना, वह मिट्टी निकली,
जिसको समझा था आँसू, वह मोती निकला।
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।

मैं कितना ही भूलूँ, भटकूँ या भरमाऊँ,
है एक कहीं मंज़िल जो मुझे बुलाती है,
कितने ही मेरे पाँव पड़े ऊँचे-नीचे,
प्रतिपल वह मेरे पास चली ही आती है,
मुझ पर विधि का आभार बहुत-सी बातों का।
पर मैं कृतज्ञ उसका इस पर सबसे ज़्यादा –
नभ ओले बरसाए, धरती शोले उगले,
अनवरत समय की चक्की चलती जाती है,
मैं जहाँ खड़ा था कल उस थल पर आज नहीं,
कल इसी जगह पर पाना मुझको मुश्किल है,
ले मापदंड जिसको परिवर्तित कर देतीं
केवल छूकर ही देश-काल की सीमाएँ
जग दे मुझपर फैसला उसे जैसा भाए
लेकिन मैं तो बेरोक सफ़र में जीवन के
इस एक और पहलू से होकर निकल चला।
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।
-Harivansh Rai Bachchan

 
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Posted by on December 25, 2013 in Harivansh rai bachchan

 

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Draupadi Shastra Utha Lo

द्रोपदी शस्त्र उठा लो, अब गोविंद ना आयंगे
छोडो मेहँदी खडक संभालो
खुद ही अपना चीर बचा लो
द्यूत बिछाये बैठे शकुनि,
मस्तक सब बिक जायेंगे
सुनो द्रोपदी शस्त्र उठालो, अब गोविंद ना आयेंगे |
कब तक आस लगाओगी तुम, बिक़े हुए अखबारों से,
कैसी रक्षा मांग रही हो दुशासन दरबारों से
स्वयं जो लज्जा हीन पड़े हैं
वे क्या लाज बचायेंगे
सुनो द्रोपदी शस्त्र उठालो अब गोविंद ना आयेंगे |
कल तक केवल अँधा राजा,अब गूंगा बहरा भी है
होठ सील दिए हैं जनता के, कानों पर पहरा भी है
तुम ही कहो ये अश्रु तुम्हारे,
किसको क्या समझायेंगे?
सुनो द्रोपदी शस्त्र उठालो, अब गोविंद ना आयेंग

-Pushymitra Upadhay

 
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Posted by on November 24, 2013 in Pushymitra Upadhay

 

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Aa Rahi Ravi Ki Savaari

Nav Kiran ka Raath saja hai
Kali kusum se path saja hai
Badalon se aanucharon ne,swarn ki poosak dhari
Aa rahi Ravi ki sawari

Vihag bandi aur charan
Ga rahe kirti gayan
Chood kar maidan bhagi, Tarkoon ki fauj saari
Aa rahi Ravi ki sawari

Chahata uchloon vijay kah
Par thithakta dekh kar yeh
Raat ka raja khada hai, rah par ban kar bhikhari
Aa rahi Ravi ki sawari

— By Harivansh Rai Bachchan

 
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Posted by on November 24, 2013 in Harivansh rai bachchan

 

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