RSS

Category Archives: Dusyant Kumar

धर्म

तेज़ी से एक दर्द
मन में जागा
मैंने पी लिया,
छोटी सी एक ख़ुशी
अधरों में आई
मैंने उसको फैला दिया,
मुझको सन्तोष हुआ
और लगा –-
हर छोटे को
बड़ा करना धर्म है ।
-दुष्यंत कुमार

 
Leave a comment

Posted by on July 10, 2012 in Dusyant Kumar

 

Tags: , , , ,

फिर कर लेने दो प्यार प्रिये

अब अंतर में अवसाद नहीं
चापल्य नहीं उन्माद नहीं
सूना-सूना सा जीवन है
कुछ शोक नहीं आल्हाद नहीं

तव स्वागत हित हिलता रहता
अंतरवीणा का तार प्रिये ..

इच्छाएँ मुझको लूट चुकी
आशाएं मुझसे छूट चुकी
सुख की सुन्दर-सुन्दर लड़ियाँ
मेरे हाथों से टूट चुकी

खो बैठा अपने हाथों ही
मैं अपना कोष अपार प्रिये
फिर कर लेने दो प्यार प्रिये ..
-दुष्यंत कुमार

 
Leave a comment

Posted by on July 10, 2012 in Dusyant Kumar

 

Tags: , , , ,

मापदण्ड बदलो

मेरी प्रगति या अगति का
यह मापदण्ड बदलो तुम,
जुए के पत्ते सा
मैं अभी अनिश्चित हूँ ।
मुझ पर हर ओर से चोटें पड़ रही हैं,
कोपलें उग रही हैं,
पत्तियाँ झड़ रही हैं,
मैं नया बनने के लिए खराद पर चढ़ रहा हूँ,
लड़ता हुआ
नयी राह गढ़ता हुआ आगे बढ़ रहा हूँ ।

अगर इस लड़ाई में मेरी साँसें उखड़ गईं,
मेरे बाज़ू टूट गए,
मेरे चरणों में आँधियों के समूह ठहर गए,
मेरे अधरों पर तरंगाकुल संगीत जम गया,
या मेरे माथे पर शर्म की लकीरें खिंच गईं,
तो मुझे पराजित मत मानना,
समझना –
तब और भी बड़े पैमाने पर
मेरे हृदय में असन्तोष उबल रहा होगा,
मेरी उम्मीदों के सैनिकों की पराजित पंक्तियाँ
एक बार और
शक्ति आज़माने को
धूल में खो जाने या कुछ हो जाने को
मचल रही होंगी ।
एक और अवसर की प्रतीक्षा में
मन की क़न्दीलें जल रही होंगी ।

ये जो फफोले तलुओं मे दीख रहे हैं
ये मुझको उकसाते हैं ।
पिण्डलियों की उभरी हुई नसें
मुझ पर व्यंग्य करती हैं ।
मुँह पर पड़ी हुई यौवन की झुर्रियाँ
क़सम देती हैं ।
कुछ हो अब, तय है –
मुझको आशंकाओं पर क़ाबू पाना है,
पत्थरों के सीने में
प्रतिध्वनि जगाते हुए
परिचित उन राहों में एक बार
विजय-गीत गाते हुए जाना है –
जिनमें मैं हार चुका हूँ ।

मेरी प्रगति या अगति का
यह मापदण्ड बदलो तुम
मैं अभी अनिश्चित हूँ ।
-दुष्यन्त कुमार

 
Leave a comment

Posted by on January 10, 2012 in Dusyant Kumar

 

Tags: , , , , ,

DEEWARE NA DEKH…

Aaj sarko par likhe hai saikaro naare na dekh,
Ghar andhera dekh tu, aakash ke tare na dekh I

Ek dariya hai yaha dur tak faila hua,
Aaj apne bajuao ko dekh, patware na dekh I

Ab yakinan thos hai dharti hakikat ki tarah,
Yah hakikat dekh, lakin khoof k maare na dekh I

Wai sahare bhi nahi aab, Jang lardni hai tujhe,
Cut chuke hai jo haath, unn haatho mein talware na dekh I

Ye dhudhalaka hai nazar ka, tu mahaz mayush hai,
Rojano ko dekh, deewaro mein deeware na dekh I

Raakh, Kitni Raakh hai, Charo taraf bhikhari hui,
Raakh mein chingariya hi dekh, angare na dekh I

-DUSYANT KUMAR

 
1 Comment

Posted by on November 1, 2011 in Dusyant Kumar

 

Tags: , , , , ,

धर्म

तेज़ी से एक दर्द
मन में जागा
मैंने पी लिया,

छोटी सी एक ख़ुशी
अधरों में आई
मैंने उसको फैला दिया,

मुझको सन्तोष हुआ
और लगा –
हर छोटे को
बड़ा करना धर्म है ।
– दुष्यंत कुमार

 
Leave a comment

Posted by on September 30, 2011 in Dusyant Kumar

 

Tags: , , ,

अब अकेली टहल रही होगी

चांदनी छत पे चल रही होगी
अब अकेली टहल रही होगी

फिर मेरा ज़िक्र आ गया होगा
वो बर्फ़-सी पिघल रही होगी

कल का सपना बहुत सुहाना था
ये उदासी न कल रही होगी

सोचता हूँ कि बंद कमरे में
वो एक शम-सी जल रही होगी

तेरे गहनों सी खनखनाती थी
बाजरे की फ़सल रही होगी

जिन हवाओं ने तुझ को दुलराया
उन में मेरी ग़ज़ल रही होगी

-दुश्यंत कुमार

 
1 Comment

Posted by on September 30, 2011 in Dusyant Kumar

 

Tags: , , ,

ye saara jism jhuk kar bojh se…

ye saara jism jhuk kar bojh se dohra huya hoga
main sajde mein nahi tha, aapko dhoka huya hoga

yahan tak aate-aate sookh jati hain kai nadiyan
mujhe maloom hai paani kahan thehra hoga

gajab ye hai ki apni maut ki aahat nahi sunte
wo sab-ke-sab parishan hain wahan par kya huya hoga

tumhare shahar mein ye shor sun-sun kar to lagta hai
ki insaano ke jungle mein koi haanka huya hoga

kayi faake bitakar mar gaya, jo uske baare mein
wo sab kehte hain ab, aisa nahi, aisa huya hoga

yahan to sirf goonge aur behra log baste hain
khuda jaane yahan par kis tarah jalsa huya hoga

chalo, ab yadgaron ki andheri kothri kholein
kam-aj-kam ek wo chehra to pehchana huya hoga
-dushyant kumar

 
Leave a comment

Posted by on September 17, 2011 in Dusyant Kumar

 

Tags: , , , ,

आग जलनी चाहिए

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
-दुष्यन्त कुमार

 
Leave a comment

Posted by on March 6, 2011 in Dusyant Kumar

 

Tags: , , ,

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।

– दुष्यन्त कुमार

 
Leave a comment

Posted by on November 13, 2010 in Dusyant Kumar

 

Tags: , , , ,

एक आशीर्वाद

जा तेरे स्वप्न बड़े हों।
भावना की गोद से उतर कर
जल्द पृथ्वी पर चलना सीखें।
चाँद तारों सी अप्राप्य ऊचाँइयों के लिये
रूठना मचलना सीखें।
हँसें
मुस्कुराऐं
गाऐं।
हर दीये की रोशनी देखकर ललचायें
उँगली जलायें।
अपने पाँव पर खड़े हों।
जा तेरे स्वप्न बड़े हों।

– दुष्यन्त कुमार

 
Leave a comment

Posted by on November 13, 2010 in Dusyant Kumar

 

Tags: , ,